खि़रद फैजाबादी फैजाबाद की एक ऐसी शख्सियत कि जिसके बारे में हम जैसे के लिए कुछ लिखना सूरज को चिराग दिखााने जैसा है। लेकिन कुछ लिखना इसलिए भी जरूरी है जिससे नई नस्ल उनके बारे में कुछ जान ले, उनका तअल्लुक फैजाबाद के मौजा सीबार से था लेकिन जिन्दगी का बेशतर हिस्सा आपने लखनऊ में गुजारा। लखनऊ मैं आज भी उनके दो बेटे माशाअल्लाह मौजूद हैं। खि़रद साहब ने गजल, नज्म, कसीदा, मर्सिया, मसनवी, नौहा, सलाम, मुसद्दस हर मैदान में अपनी शायरी का लोहा मनवाया। पूरे दीवाने गािलब पर उनकी तजमीन अहले इल्मो जौक के लिए एक बेमिसाल और नायाब तोहफा है, लेकिन इसे सितमजरीफी कहा जायगा कि मौसूफ की यह बेमिसाल तख्लीक मन्जरे आम पर अभी तक न आ सकी, कोशिश भी की गयी लेकिन अभी कामयाबी न मिल सकी, मगर नाउम्मीद नहीं हूँ। दीवाने गालिब की मशहूर गजल-नक़्श फरियादी है किसकी शोखिये तहरीर का- कागजी है पैरहन हर पैकरे तस्वीर का इस मतले पर इस तरह तजमीन लगाई –
नक़्श फरियादी है किसकी शोखिये तहरीर का
अस्ल में एलान है नाकामिये तदबीर का।
सिर्फ मतलब मौत है इस ख्वाब की ताबीर का
कागजी है पैरहन हर पैकरे तस्वीर का।।
खि़रद फ़ैजाबादी जैसी अज़ीम शख्सियत के बारे में जानने वाले लोग आज भी फैज़ाबाद के अलावा मुख्तलिफ़ शहरों में मौजूद हैं। मैंने तो जो बचपन में देखा और बाद में जो सुना व पढ़ा वही अपने छोटे भाईयों के साथ शेयर कर रहा हूँ। उनके इल्मो सलाहियत के बारे में जानने के लिए उन्हें पढ़ना जरूरी है। ‘चिरागे़ दहर’’ जिसमें गालिब ने दिल्ली से बनारस तक के सफ़र और बनारस पहुंच कर वहां की मन्जरकशी फारसी में अस्सी अशआर में की है। यूपी के गवर्नर बी. गोपाला रेड्डी साहब ने किसी मुशायरे में खिरद साहब को वह शेरी मजमूआ दिया और उसका उर्दू में तर्जुमा करने की गुजारिश की। खिरद साहब ने गालिब के ’’चिरागे दहर’’ के हर शेर का हूबहू तर्जुमा उसी बहर में उर्दू में किया और रेड्डी साहब को पेश कर दिया। वालिद साहब बताते हैं कि रेड्डी साहब के ज़माने में गवर्नर हाउस में खि़रद साहब बगैर किसी एपाइन्टमेंट के जाते थे। ‘चिरागे दहर’ आज भी अनीसो चकबस्त लाईबे्ररी फैज़ाबाद में खि़रद साहब की खूबसूरत राइटिंग में लिखी हुई मौजूद है। खिरद फैज़ाबादी लखनऊ में रहते हुए भी फ़ैजाबाद से बेपनाह मोहब्बत करते थे। सभी से मुस्कुरा कर बात करना उनकी पहचान थी। जो भी उनसे मिलता उसे यही लगता था कि खि़रद साहब सबसे ज्यादा उसी को अज़ीज रखते है। उनको गुस्से में शायद ही किसी ने देखा होगा। ……………….
खि़रद फ़ैजाबादी की शायरी में एक खास बात नज़र आती है कि उमूमन उन्होंने अपनी शायरी में आसान उर्दू अलफ़ाज का इस्तेमाल किया। उनकी मक़बूलियत की एक वजह उनकी आसान ज़बान भी थी। उनका अन्दाजे बयान भी बड़ा दिलकश था, उसकी अक्कासी तहरीर से करना नामुमकिन है। कभी-कभी ऐसा लगता था के वह शेर नहीं पढ़ रहे हैं बल्कि सामईन से बातें कर रहे हैं।
मसलन-
एक बात बताता हूँ सुन लीजिए ख़मोशी से
इस वक़्त दलीलों से मैं काम नहीं लूँगा।
किस मर्द ने पाया था खैबर में अलम दीं का,
ख़ुद आप समझ लीजे मैं नाम नहीं लूँगा।
यानी कम पढ़ा लिखा शख्स भी उनके शेर बहुत आसानी से समझ लेता था। यह भी खिरद फैजाबादी की शायरी का कमाल था। एक बार चौक की मस्जिद में होने वाली सत्तरह रबीउलअ्रव्वल की शानदार महफिल में खिरद साहब ने रसूलखुदा स.अ.व. की शान में नायाब क़सीदा पढ़ा, मोमिनीन से छलकते हुए मस्जिद के सहन में कोई भी खामोश न था। खिरद साहब के बाद अल्लामा तक़ीयुल हैदरी साहब तक़रीर करने आये, मुझे याद है जनाब ने कहा था खि़रद साहब की तारीफ कैसे करूं, मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि खिरद साहब नस्र में पढ़ रहे थे कि नज़्म में। …………….
खि़रद फ़ैजाबादी ने कभी शायरी को जरियए मआश नहीं बनाया। टेलीफोन मोहकमें में मुलाज़िम थे । मुलाजिमत ने उनकी शायराना जिन्दगी में कभी रूकावट नहीं डाली। खि़रद फैज़ाबादी छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी महफ़िल में एक ही अन्दाज़ से शिरकत करते थे। मुबई, कलकत्ता, अहमदाबाद, अमरोहा, जौनपुर वगैरह जैसी जगहों पर खिरद साहब की दी हुई तारीखों में महफ़िल रखी जाती थी। चुंकि फैजाबाद से उन्हें खुसूसी लगाव था इस लिए बाहर के बड़े से बड़े प्रोग्राम को फ़ैजाबाद की चार महफिलों, 12 रजब चौक की मस्जिद, 13 रजब मोती मस्जिद (तरही महफ़िल), 14 रजब खिड़की अली बेग और 15 रजब इमामबाड़ा जवाहर अली खाँ की महफिल पर कई बार कुर्बान किया, और इसमें मुसलसल शिरकत करते रहे। इसके गवाह आज भी मौजूद हैं। यकीनन उन्हें फैज़ाबाद में शेर पढ़ने का लुत्फ़ मालूम था। उस वक्त फैजाबाद में बड़े मेयारी सामईन भी तो थे। जिनमें कुछ को मैंने भी देखा है। मसनल लईक अख्तर साहब, अख्तर अब्बास जैदी साहब, अतहर आब्दी साहब, नासिर साहब, मुजफ्फर साहब वगैरह कितनों के चेहरे याद है नाम नहीं इसके अलावा फैजाबाद के नामवर शोअरा कद्र फैजाबादी, शोर भारती, अकबर फैजाबादी, वगैरह सिर्फ शेर ही नहीं सुनाते थे बल्कि बेहतरीन सामेअ भी थे। महफिल की निज़ामत करने वाले को तब इतना जोर नहीं लगाना पड़ता था कि कलेजा मुंह को आ जाए, न शोअरा को दाद के लिए भीख मांगनी पड़ती थी। सामईन हर शेर को उसके वज़्न के एतबार से खुद दादो तहसीन से नवाज़ते थे। कोई भी खि़रद फै़जाबादी को सुने बगैर महफिल से जाता नहीं था………….
खि़रद फ़ैजाबादी सफ़े अव्वल के शायर थे। लखनऊ फैजाबाद जौनपुर इलाहाबाद वगैरह में उनके बेशुमार शागिर्द थे। कुछ शागिर्द तो उम्र में भी उनसे बड़े थे। उनके शागिर्दो में अहले सुन्नत की भी अच्छी खासी तादाद थी, खिरद फैजाबादी का शागिर्द होना उस वक़्त फख़्र की बात थी। फैजाबाद की महफ़िलों में न जाने कितने शोअरा को खि़रद फै़जाबादी ने पहचनवाया। नसीमुलक़ादरी, रम्ज़ इलाहाबादी, राही कानपूरी, इज़हार जौनपुरी सबके के नाम तो मुझे याद भी नहीं रहे। शोला जौनपुरी और कै़सर नवाब जौनपुरी को मैंने सबसे पहले खिरद फैज़ाबादी साहब के साथ महफ़िलों में आते देखा। खिरद फैजाबादी रजब की महफ़िलों में शिरकत के लिए 12 रजब को आ जाते थे। महफ़िलें तो रात में होती, लेकिन मेरे गरीबखाने (यानी नूर साहब के घर ) पर दिन भर महफ़िल सजी रहती थी। लगता था सारे काम काज बंद हैं। मेहमान शोअरा के अलावा मुक़ामी शोअरा (जिनकी तादाद आज की जैसी नहीं थी यानी बहुत कम थी लेकिन सब अपनी-अपनी जगह पर मज़बूत और कोहना मश्क़ शायर थे जैसे जनाब शोर भारती, अकबर फैजाबादी, क्रद्र फैजाबादी) इसके अलावा दीगर अहले नज़र व अहले जौ़क़ हज़रात का दिनभर जमावड़ा रहता था। खिरद फैजाबादी अपने शेर सुनाते भी थे और दीगर शोअरा से शेर सुनते भी थे। मैं शेर तो नहीं समझता था लेकिन वहाँ से हटता भी नहीं था।
खि़रद फै़जाबादी का रहन सहन बहुत ही सादा था। अल्फ़ाज़ के ज़रिए उनकी तस्वीरकशी करना मुश्किल है लेकिन आपके लिए कोशिश करता हूं, जिन्होंने उनको देखा है वह इसकी ताईद जरूर करेंगे। गन्दुमी रंग, लम्बा क़द, इकहरा बदन, सर के बाल लम्बे मगर सलीक़े से पीछे की तरफ़ सहेजे और कंघी किये हुए, चोैड़ी पेशानी, हाथों की सभी उंगलियों में अंगूठी। हर उंगली में अक़ीक, फ़ीरोजे और मुख़्तलिफ़ नगों की कई-कई अंगूठी, चैड़ी मोहरी का पायजामा, शेरवानी जिसके सारे बटन खुले रहते थे। इत्र के शौक़ीन, जिस तरफ से गुजर जाते वहाँ की फे़जा महक उठती। कहीं भी जाते तो कई लोग साथ होते, मगर सबके बीच उनकी शख्सियत नुमाया रहती। दूर से देखने वाला भी पहचान लेता कि खि़रद फै़जाबादी आ रहे हैं। रास्ता चलते भी उनके साथी उनसे अशआर सुनने से बाज़ नहीं आते थे। मैंने जब होश संभाला तो खि़रद फैजाबादी ग़ज़ल की दुनिया से मुंह मोड़ चुके थे। अपनी जिन्दगी उस शायरी के लिए वक़्फ़ कर दी थी जो आख़ेरत के लिए ज़ादे सफ़र बन सके। शायद यही वजह थी के इतने अज़ीम शायर होने के बावजूद उनमें किसी तरह का तकब्बुर या ‘‘मैं’’ ं का शायबा तक नहीं था। जूनियर शायरों का शेर सुनते और दिलखोल कर उनकी हौंसला अफ़जाई करते। हाई ब्लड प्रेशर के मरीज़ थे खाना परहेजी खाते थे। लेकिन चाय व पान के बेहद शौक़ीन थे। पान की खूबसूरत डिब्बी हमेशा साथ रहती थी।
खि़रद फै़जाबादी की शायरी की बात हो और अन्जुमनहाए मातमी का तज़किरा न किया जाय, तो बात अधूरी रह जायगी। खि़रद फ़ैजाबादी ने खुसूसन दौराने अय्यामे अज़ा अन्जुमनों की जो खि़दमत की वह नाक़ाबिले फ़रामोश है। वह मुख़्तलिफ़ शहरों में एक साथ कई-कई अन्जुमनों को सलाम और नौहे दिया करते थे। मौसूफ़ क्रिकेट के बहुत शौक़ीन थे, उस वक़्त रेडियो पर क्रिकेट मैच का आंखों देखा हाल (कमेंट्री) रिले होती थी। खि़रद साहब के लिए कहा जाता है कि घर पर बाहर से तरही कलाम लेने आये हुए मुख़्तलिफ़ अंजुमनों के लोगों को तरही कलाम के शेर भी नोट करवाते जाते थे और कमेंट्री भी सुनते रहते थे। वैसे शोअरा हज़रात बखूबी जानते हैं कि एक वक्त में मुख़्तलिफ़ बहरों में शेर कहना किस क़दर दुश्वार है, लेकिन खि़रद साहब के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं था। लखनऊ के अलावा जौनपुर, इलाहाबाद, फैजाबाद, सुलतानपुर, जलालपुर, कानपुर व दीगर शहरों में अन्जुमनें उनके कलाम पढ़ती थीं। फैज़ाबाद की आठवीं में मैंने एक साथ कई अन्जुमनों को खि़रद फ़ैज़ाबादी का कलाम पढ़ते सुना है। फैज़ाबाद की अन्जुमनें तो खिरद साहब का कलाम पढ़ना अपना ह़क समझती थीं। ‘‘था क़ब्रे सकीना पे जै़नब का नौहा, सकीना उठो मैं वतन जा रही हूँ।’’ यह दर्दनाक नौहा आज भी चेहल्लुम में अन्जुमनों से फरमाइश करके पढ़वाया जाता हैl
खि़रद फ़ैजाबादी ने बेशुमार क़सीदे, नज़्मे, गजलें, सलाम और नौहे कहे। उनकी शख्सियत और उनकी शायरी पर कलम उठाने के लिए इल्मी सलाहियतों के साथ गहरी निगाह भी दरकार है।
खि़रद फैज़ाबादी की ‘‘मौत और ज़िन्दगी’’ नज़्म के चन्द अशआर-
ज़िन्दगी आलामो ग़म का नाम है,
मौत बस आराम ही आराम है।
ज़िन्दगी नेमत है काफ़िर के लिए
मौत मोमिन के लिए इनआम है।
मौत क्या है एक सुकूने दायमी
ज़िन्दगी बेचैनियों का नाम है।
मौत एक तकलीफ़ है आराम देह
ज़िन्दगी तकलीफ़ देह आराम है।
कुछ न होकर जिन्दगी है नेकनाम
मौत सबकुछ है मगर बदनाम है।………….
खि़रद फ़ैजाबादी फरमाते है-
यह आदमी की ज़ात अभी है अभी नहीं,
ये मुख्तसर हयात अभी है अभी नहीं।
ये ज़िन्दगी है आरज़ी और इतनी आरज़़ी,
जैसे अख़ीर रात अभी है अभी नहीं।
और ये अख़ीर रात 4 नवम्बर 1986 माहे सफर की 26 तारीखं को सुबह 8 बजे खिरद फैज़ाबादी की जिन्दगी से भी गुजर गयी। दिमाग़ की रग फट जाने पर मेडिकल कालेज लखनऊ से शायरी का यह चमकता हुआ सूरज उजाला बांटते बांटते हमेशा-हमेशा लिए गुरूब हो गया। खुदा का शुक्र है कि उनके बेटों के पास उनकी शायरी का तमाम ज़खीरा महफूज़ है। लेकिन उसकी नशरो इशाअत की सबील होना भी जरूरी है, जो उर्दू अदब का बेशकीमती सरमाया है। मैं अपनी कमइल्मी और महदूद सलाहियतों का एतराफ़ करते हुए यह जरूर कहूंगा कि ख़िरद फै़जाबादी के बारे में मैंने जो मुख़्तसर जानकारी चन्द सतरों के ज़रिए आप तक पहुंचायी वह दरिया से कूज़ा भर पानी निकालने के बराबर भी नहीं है। आपका शुक्रगुजार हूँ जो आपने अपने कमेंट के जरिये हक़ीर की हौसला अफ़जाई की। आमदे रमज़ानुल मुबारक के पेशे नज़र अपनी बात यहीं मुकम्मल करता हूँ।
इल्तेमासे सूरए फ़ातेहा- सैयद बदरूल हसन मरहूम ‘‘खिरद फै़जाबादी’’ इब्ने सैयद इब्नुल हसन मरहूम।
*जनाब मोहसिन नक़वी*
*‘‘दानिश फै़जाबादी’’*