फ़ैकल्टी की नियुक्ति के समय विश्वविद्यालय लगभग हर मामले में अपने ही पुराने छात्रों को तरजीह देते हैं, भले ही योग्यता के लिहाज से वे कई तरह से उपयुक्त न होते हों. यह हमारे विश्वविद्यालयों के लिए धीमा जहर साबित हो रहा है.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कहानी दो बातें बताती है. एक तो यह कि भारत के विश्वविद्यालयों में कितनी संभावनाएं छिपी हुई हो सकती हैं; दूसरी यह कि उनका कैसा त्रासद पतन हो सकता है. आजादी के बाद के कुछ दशकों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय अपने फिजिक्स विभाग के मेघनाद साहा और के.एस. कृष्णन सरीखे वैज्ञानिकों पर; उसका अंग्रेजी विभाग फ़िराक़ गोरखपुरी और हरिवंश राय बच्चन जैसे साहित्यकारों पर; और गणित विभाग बी.एन. प्रसाद तथा गोरख प्रसाद सरीखे गणितज्ञों पर गर्व करता था. मार्के की बात यह है कि इनमें से किसी ने अपनी पीएचडी या ऊंची डिग्रियां इलाहाबाद विश्वविद्यालय से नहीं हासिल की थीं.
लेकिन आज इलाहाबाद विश्वविद्यालय इस बात का उदाहरण बन गया है कि किसी विश्वविद्यालय को कैसा नहीं होना चाहिए. वह ‘अकादमिक इनब्रीडिंग’ (आंतरिक पोषण) जैसी घोर बीमारी के लिए बदनाम हो गया है. ऐसा केवल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के साथ नहीं हुआ है, भारत के लगभग सभी पुराने विश्वविद्यालयों का यही हाल है, चाहे वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हो या बड़ौदा का एम.एस. यूनिवर्सिटी हो या पंजाब विश्वविद्यालय या राजस्थान विश्वविद्यालय.
‘अकादमिक इनब्रीडिंग’ का अभिशाप तब लगता है जब किसी विश्वविद्यालय की फ़ैकल्टी में ज्यादा ऐसे शिक्षक भरे होते हैं जिनके पास उसी विश्वविद्यालय की डिग्रियां होती हैं. यह कोई संयोग नहीं है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पतन 1960 के दशक की बाद से शुरू हुआ और लगभग उसी समय से इसकी फ़ैकल्टी के शैक्षिक स्वरूपों में भी उल्लेखनीय बदलाव आना शुरू हुआ. उनमें से अधिकतर के पास उसी विश्वविद्यालय की पीएचडी डिग्रियां थीं और बाहर का कोई शैक्षिक अनुभव नहीं था. ‘अकादमिक इनब्रीडिंग’ से रैंकिंग, शोध का स्तर गिरता है, फैकल्टी की विविधता प्रभावित होती है, और लल्लो-चप्पो करने वाले ‘आंतरिक गुट’ का निर्माण होता है, जिससे वैचारिक प्रक्रिया ठहर जाती है. यह भी एक वजह है कि भारतीय विश्वविद्यालय ग्लोबल रैंकिंग में कभी शिखर पर नहीं पहुंच पाते.