अवधनामा का वकार ख़त्म हो गया। सैय्यद तक़वी

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    लखनऊ की फिजाओं में गूंजने वाली उर्दू की आवाज़ खामोश हो गई। सहाफत और अदब को जोड़ने वाली कड़ी टूट गई। अवध का नामा लिखने वाला चला गया। सहाफत के आसमान पर चमकने वाला सूरज डूब गया। उर्दू अदब की प्यासी ज़मीन पर हुनर की आबशारी करने वाला चल बसा।
    अदबी सामाजिक महफिलों को अपनी मौजूदगी से रौशन करने वाला चिराग़ बुझ गया।
    अफसोस एक ऐसा शख्स लखनऊ के अदबी आसमान पर एक चमकते सितारे की तरह था। दस दिन की बीमारी में दुनिया को छोड़ कर चला गया।
    उर्दू शब्द का एक ऐसा नाम जिसने एक अपना सामाजिक परिवार तैयार कर रखा था उस सामाजिक परिवार में उर्दू अदब और सामाजिक पहलू से जुड़े हर तरह के अफ़राद शामिल थे चाहे शायर हों, खतीब हों या उर्दू अदब के बड़े कलमकार सब शामिल थे।
    और उनके परिवार को उस वक्त देखा जा सकता था जब वह वक्त वक्त पर सेमिनार और उर्दू अदब की नशिस्तों का आयोजन करते थे।
    पिछले कुछ सालों से वकार रिजवी ने बहुत तेजी के साथ काम करना शुरू कर दिया था और हर हर मौके पर एक ऐसे प्रोग्राम का आयोजन करते रहते थे जहां सिर्फ और सिर्फ ऐसे अफ़राद की भीड़ दिखाई देती थी जो वाकई समाज के लिए गौरव का प्रतीक हैं।
    वकार रिजवी साहब के जाने से जो एक सबसे बड़ा सवाल सामने आ रहा है वह यह कि उनके जरिए लगाया गया है एक बड़ा घना सयादार पेड़ अवधनामा की शक्ल में जो आपके सामने है उसकी निगरानी कौन करेगा?
    अवध नामा के उर्दू हिंदी संस्करण जो प्रदेश और प्रदेश के बाहर भी कई शहरों से निकलता है उसको संभालना इतना आसान काम नहीं है और अब तो वकार रिजवी ने इसका डिजिटल संस्करण भी लॉन्च कर दिया था कि जो आज उर्दू नहीं पढ़ पाते हैं वह खबरें सुनकर के उर्दू का लुत्फ ले सकते हैं। लेकिन अफसोस।
    वकार रिजवी साहब की शख्सियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी मौत की खबर पर मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री, राज्य पाल, राजनीतिक दलों के राजनेता, सांसद एवं उच्च अधिकारियों ने दुःख का इज़हार किया। पूर्व राज्यपाल ने तो बहुत मार्मिक शोक संदेश दिया। ये उनके प्यार मोहब्बत और खुलूस का असर है।
    बहरहाल इस अनदेखी और एक अनसुलझी हुई पहेली जिसे कोरोनावायरस के नाम से जाना जा रहा है उसने वकार रिजवी को अपना शिकार बना लिया। बहुत सोचने और समझने की जरूरत है कि जो इंसान अपने पैरों से चलकर के अस्पताल तक गया था वह वहां से जिंदा वापस ना सका इसे हिंदुस्तान की चिकित्सा व्यवस्था की लापरवाही कहा जाए या इंसान की मौत कहा जाए या कुदरत का बहाना कहा जाए। क्या कहा जाए?
    “”कुललो नफसिन ज़ायक़तुल मौत””
    यही हकीकत है।

    सैय्यद एम अली तक़वी
    निदेशक यूरिट एजुकेशन इंस्टीट्यूट
    लखनऊ

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